Ghalib Shayari on Love: नमस्कार दोस्तों हमेशा की तरह एक बार फ़िर से हाजिर है एक नए पोस्ट के साथ जिसका टाइटल है मिर्ज़ा गालिब की शायरी। हम उम्मीद करते है की ये पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तो के साथ जरूर शेयर करेंगे।
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा,
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,
वर्ना हम भी आदमी थे काम के।
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़,
लरज़े है मौज-ए-मय तिरी रफ़्तार देख कर।
जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल,
दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे।
की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा,
आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है।
लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़,
लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था।
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल,
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़।
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले,
दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास।
फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया,
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई।
गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़,
पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है।
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़,
तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई।
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में,
कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को।
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद,
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में।
ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग,
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को।
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी,
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी।
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ,
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर।
साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर,
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे।
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का,
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का।
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी,
रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए।
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना,
ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त।
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब,
इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है।
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में,
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है।
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल,
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए।
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर,
देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख के।
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा,
अजब आराम दिया बे-पर-ओ-बाली ने मुझे।
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है,
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे।
है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद,
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है,
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को।
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन,
जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं।
कम नहीं जल्वागरी मे तिरे कूचे से बहिश्त,
यही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं।
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से,
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से।
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन,
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन।
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए,
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का।
रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है,
शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का।
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से,
परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है।
जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम,
मैं मो तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था।
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़,
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है।
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को असद,
आप की सूरत तो देखा चाहिए।
गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़,
याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं।
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही,
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ।
शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश,
सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं।
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है,
मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है।
ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया,
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए।
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के,
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए।
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे,
ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में।
रात पी ज़मज़म पे मय और सुबह दम,
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के।
सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये खूब,
देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किए।
मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब,
वो अनासिर में ए'तिदाल कहाँ।
ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ,
लोग नाले को रसा बाँधते हैं।
हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के असद,
खुला कि फ़ाएदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं।
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र ग़ालिब,
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से।
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी,
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए।
नज़र लगे न कहीं उस के दस्त-ओ-बाज़ू को,
ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं।
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल,
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला।
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है,
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ।
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव,
रखता है ज़िद से खींच के बाहर लगन के पाँव।
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं,
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की।
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन,
हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं।
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़,
अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना।
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब,
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना।
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़,
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और।
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद,
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं।
बे-पर्दा सू-ए-वादी-ए-मजनूँ गुज़र न कर,
हर ज़र्रा के नक़ाब में दिल बे-क़रार है।
गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए,
जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे।
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया,
मैं और जाऊँ दर से तिरे बिन सदा किए।
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब,
इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे।
काम उस से आ पड़ा है कि जिस का जहान में,
लेवे न कोई नाम सितम-गर कहे बग़ैर।
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे,
गर हया भी उस को आती है तो शरमा जाए है।
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे,
कटे ज़बान तो ख़ंजर को मरहबा कहिए।
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना,
है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है।
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी,
वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है।
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर,
ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम।
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह,
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझाएँगे क्या।
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का,
मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई।
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी,
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं।
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई,
इक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश है।
ताब लाए ही बनेगी ग़ालिब,
वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़।
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा,
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें।
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी,
मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था।
अहल-ए-बीनश को है तूफ़ान-ए-हवादिस मकतब,
लुत्मा-ए-मौज कम अज़ सैली-ए-उस्ताद नहीं।
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त असद,
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या।
मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद,
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है।
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद,
किस की हाजत रवा करे कोई।
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना,
तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे।
मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ,
वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ।
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है,
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से।
हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद,
वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़।
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और,
तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और ।
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही,
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या।
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से,
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं।
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर,
करे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिए।
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो,
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना ग़ालिब,
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बअद।
आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब,
कोई दिन और भी जिए होते।
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए,
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से,
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं।
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं,
उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या।
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल,
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए।
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब,
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ।
आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब,
कोई दिन और भी जिए होते।
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का